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तमु॑ त्वा द॒ध्यङ्ङृषिः॑ पु॒त्रऽई॑धे॒ऽअथ॑र्वणः। वृ॒त्र॒हणं॑ पुरन्द॒रम् ॥३३ ॥

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पद पाठ

तम्। ऊ॒ इत्यूँ॑। त्वा॒। द॒ध्यङ्। ऋषिः॑। पु॒त्रः। ई॒धे॒। अथ॑र्वणः। वृ॒त्र॒हण॑म्। वृ॒त्र॒हन॒मिति॑ वृत्र॒ऽहन॑म्। पु॒र॒न्द॒रमिति॑ पुरम्ऽद॒रम् ॥३३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:33


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (अथर्वणः) रक्षक विद्वान् का (पुत्रः) पवित्र शिष्य (दध्यङ्) सुखदायक अग्नि आदि पदार्थों को प्राप्त हुआ (ऋषिः) वेदार्थ जानने हारा (उ) तर्क-वितर्क के साथ सम्पूर्ण विद्याओं का वेत्ता जिस (वृत्रहणम्) सूर्य्य के समान शत्रुओं को मारने और (पुरन्दरम्) शत्रुओं के नगरों को नष्ट करनेवाले आप को (ईधे) तेजस्वी करता है, वैसे (तम्, त्वा) उन आपको सब विद्वान् लोग विद्या और विनय से उन्नतियुक्त करें ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष वा स्त्री साङ्गोपाङ्ग सार्थक वेदों को पढ़ के विद्वान् वा विदुषी होवें, वे राजपुत्र और राजकन्याओं को विद्वान् और विदुषी करके उन से धर्मानुकूल राज्य तथा प्रजा का व्यवहार करवावें ॥३३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(तम्) (उ) वितर्के (त्वा) त्वाम् (दध्यङ्) यो दधीन् सुखधारकानग्न्यादिपदार्थानञ्चति सः (ऋषिः) वेदार्थवित् (पुत्रः) पवित्रः शिष्यः (ईधे) प्रदीपयेत्। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु [अष्टा०७.१.४१] इति तकारलोपः। (अथर्वणः) अहिंसकस्य विदुषः (वृत्रहणम्) यथा सूर्य्यो वृत्रं हन्ति तथा शत्रुहन्तारम् (पुरन्दरम्) यः शत्रूणां पुराणि दृणाति तम्। [अयं मन्त्रः शत०६.४.२.३ व्याख्यातः] ॥३३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! यथाऽथवर्णः पुत्रो दध्यङ्ङृषिरु सकलविद्याविद् वृत्रहणं पुरन्दरमीधे, तथा तं त्वा सर्वे विद्वांसो विद्याविनयाभ्यां वर्द्धयन्तु ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - ये याश्च साङ्गोपाङ्गान् वेदानधीत्य विद्वांसो विदुष्यश्च भवेयुस्ते ताश्च राजपुत्रादीन् राजकन्यादींश्च विदुषो विदुषींश्च संपाद्य ताभिर्धर्मेण राजप्रजाव्यवहारान् कारयेयुः ॥३३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पुरुष व स्त्री वेदाचे सांगोपांग सफलतापूर्वक अध्ययन करून विद्वान व विदुषी बनतात त्यांनी राजपुत्र व राजकन्या यांना विद्वान व विदुषी करून त्यांच्याकडून धर्मानुकूल राज्य चालवून प्रजेची कामे करावीत.